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हमारे अपनों को ज्यादा जरूरत है हमारी आएगा जब भी खुशी या गम का कोई मौका, हमको बहुत रुलाएगा तुम्हारी यादों का झोंका। रोज़ की तरह आज भी शोक संदेशों पर नज़र गई। पांच बुजुर्गों के बीच दो युवा। जिनमें से एक के परिजनों ने शोक संदेश में ये भावभीनी दो पंक्तियां लिखी थीं। एक युवा की जान एक्सीडेंट में चली गई, पढ़कर दुख हुआ। मगर दूसरे युवा ने परीक्षा में कम नंबर आने की वजह से आत्महत्या कर ली, जानकर रोष हुआ। उनके बारे में ये खबरें अखबार में ही प्रकाशित थीं। ये हमारे लिए कोई चौंकाने वाली बात अब नहीं रह गई है। लंबे समय से शोक संदेशों पर बुजुर्गों के बीच युवाओं ने जगह बना ली है, चाहे-अनचाहे। हमारे युवा प्रधान देश में युवाओं का ये हाल देख-सुनकर अचरज होता है। जिन कंधों पर देश की जिम्मेदारी है, वे इतने कमज़ोर हैं? विधाता जीवन छीन ले, अलग बात है, मगर जीवन से हारकर स्वयं जि़ंदगी समाप्त कर देना, ये तो बुज़दिली हुई न! अखबारों के उठावना कॉलम पर नज़र जाती है, तो बुज़ुर्गों की भीड़ में युवक/युवतियों की तस्वीरें देखकर मन उदास हो जाता है, खासतौर से आत्महत्या करने वाले स्कूल-कॉलेज गोइंग बच्चों की तस्वीरें देखक
अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजो हर सुबह की तरह आज भी हाथ जोड़कर ईश्वर को धन्यवाद दिया। साथ में एक दुआ भी मांगी, 'हे प्रभु, अगले हर जनम में मुझे बेटी ही बनाकर भेजना, ताकि पिता के दिल के करीब रहूं और मां के मर्म को समझूं। बस किस्मत में उनसे बिछोह मत लिखना।Ó दुआ मांगते-मांगते मेरी बाईं आंख से पहला आंसू गिरा और मुझे किसी की कही बात याद आ गई- जब कोई खुशी में रोता है, तो उसकी दाईं आंख से पहला आंसू निकलता है और जब कोई दुख में रोता है, तो उसकी बाईं आंख से पहला आंसू गिरता है। आज मन दुखी था, किसी के लिए। कुछ दिनों पहले अचानक एक दुखद खबर मिली, मेरी एक दोस्त से उसकी मां का आंचल छिन गया। एक साल पहले ही उसने अपने पिता को खो दिया था और अब मां का जाना, उसे कैसी स्थिति में ले आया होगा, इसका मैं अनुमान भी नहीं लगा सकती। मैंने हर स्थिति से उसे लड़ते देखा है। पिता के जाने के बाद वह घर में अपनी बहन-भाई और मां के लिए घर का मुखिया बन गई थी। एक पुरुष की तरह हर जिम्मेदारियों का निर्वहन उसने अकेले किया। घर-ऑफिस के बीच संतुलन बनाकर जैसे-तैसे घर की गाड़ी को पटरी पर लेकर आई ही थी, कि मां के दिनोंदिन बिगड़ते
तुम यूं बिना कुछ कहे क्यों चली गईं दिन 13 मई, वक्त शाम का, जगह कानपुर। खबर मिली कि ३२ वर्षीय दो बच्चों की मां ने खुद को आग लगाकर आत्महत्या कर ली। कानपुर से यूं तो मेरा कोई सीधा संबंध नहीं है, न ही मेरा वहां कोई घरोबा ही है, मगर फिर भी एक लगाव तो था, लेकिन अब वो भी नहीं रहा। कोई रहता था मेरा, जिससे न तो खून का रिश्ता था, न रिश्तेदारी। लेकिन अब इस शहर से एक नया रिश्ता जरूर बन गया है- बैर का। 14 जून सुबह का वक्त, खाने की तैयारियों में लगी मैं दौड़-भाग कर रही थी कि अचानक मोबाइल बजा। आवाज सहेली की थी। एक मिनट तक तो वो रोती रही, मैं समझ नहीं पाई, बस उसे चुप कराने में लगी थी। धीरे-धीरे जब उसने खुद को संभाला, तो बस इतना ही बोलकर फोन रख दिया कि - संध्या ने 13 मई को आत्महत्या कर ली, मुझे आज ही पता चला। मैं स्तब्ध। न कुछ बोलते बना, न कुछ सुनते। किचन से निकली और खुद को ये यकीन दिलाने में लगी रही कि हो सकता है मैंने गलत सुना हो। अभी दिसंबर में ही तो मिले थे हम। पूरे दस सालों बाद। उसके गालों पे पड़ते डिंपल ने माथे की शिकन का जरा भी अंदाज़ा नहीं लगने दिया, हर बार की तरह। संध्या ने ऐसा कुछ भी नहीं
ऐ री सखी, मेरी प्यारी सखी हर छोटी-छोटी बात के लिए मैं उस पर बहुत गुस्सा करती थी, रोज स्कूल के लिए उसे इंतज़ार करवाती थी, उस पर झीकती थी, अपनी मनमानी करती थी, अपना टिफिन लंच के पहले ही खत्म कर देती थी और लंच में उसके टिफिन में अपना बड़ा-सा हिस्सा मांगती थी। हर बार उसका जन्मदिन भूल जाती थी और माफी भी नहीं मांगती थी, मेरे स्कूल न जाने पर उस पर भी स्कूल बंक करने का दबाव बनाती थी, मगर इन सब बातों के बावजूद वह - मेरे स्कूल के लिए तैयार होने से पहले घर आ जाती थी, अपने टिफिन में मेरी पसंद की चीज़ें लाती थी, होमवर्क में मेरी मदद करती थी, मेरे गुस्से को चुपचाप सहन करती थी, हर साल ठीक 12 बजे मुझे जन्मदिन पर बधाई देती थी, परीक्षाओं वाले दिन अपने साथ-साथ मेरी तैयारी पर विशेष ध्यान देती थी। वह मेरी बचपन की सहेली है- मेरी प्यारी सहेली, मेरी प्रगाढ़ सहेली, मेरे सुख-दुख की साथी। आज जब लोग फ्रैंड शब्द पर जोर देकर खुद को मॉडर्न घोषित करते हैं, मैं उसे सहेली, दोस्त, सखी जैसे शब्दों से संबोधित करके पिछड़ी पीढ़ी का कहलाना पसंद करती हूं। क्या कहूं उसके बारे में वह मेरी दोस्त नहीं है, अच्छी दोस्त है, बहुत
स्वागत कीजिए बिन बुलाए आलोचक का आप अधीर हैं? गुस्सैल हैं? जल्द ही काबू खो देते हैं? अपनी बुराइयां सुनने के आदी नहीं हैं? तो आपको जल्द ही एक अदद छिद्रान्वेशी को अपने खेमे में नियुक्त करने की जरूरत है। नहीं समझे, छिद्रान्वेशी मतलब वही आलोचक, समालोचक, समीक्षक, गुणदोष विचारक या कह लो क्रिटिक। प्यार से जिस नाम से भी पुकारो, चलेगा, बल्कि दौड़ेगा। ये वे संज्ञावाचक हैं, जिन्होंने आपके अंदर मौजूद कमियों को दूर करने की जिम्मेदारी उठाई है। जैसे नगरनिगम हर गली-चौबारे की गंदगी साफ करके अपने शहर को स्वच्छ रखती है, ये भी समाज के ऐसे ही ठेकेदार हैं, जो आपके व्यक्तित्व में निखार लाते हैं। ्रअगर आपके आस-पास क्रिटिक मौजूद हैं, तो आप दुनिया के सबसे खुशकिस्मत इंसानों में से एक हैं। मुंह पर तारीफ करने वाले हज़ारों मिल जाएंगे साहब, पर आपके मुंह पर आपकी ही बुराई करने वाले जिगरवाले ही होते हैं। इसलिए इनका स्वागत कीजिए, क्योंकि ये ही लोग आपमें छुपी हुई उस खूबी की खोज करेंगे, जिसे आप नजरअंदाज करते आए हैं। जब भी कोई आपको आपके काम की बुराई करते नजर आए, तो समझिए आप तरक्की की सीढिय़ां चढऩे लगे हैं और अव्वल दर्जे क
उपहारों से न सज पाई लड़की का दर्द कुछ समय पहले मार्केट में मेरी सहेली-दीदी (वो उम्र में मुझसे बड़ी हैं) की डॉ. भाभी मिल गईं। हालचाल पूछने के बाद सीधे मुद्दे की बात पर आईं, जैसे बरसों से मेरा इंतज़ार कर रही हों कि कब मैं मिलूं, और वे अपनी ननद को लेकर मन की भड़ास निकालें। उन्होंने बोलना शुरू किया- 'समझाओ उसे। दोस्त है तुम्हारी। बताओ कि तुम्हारी शादी हो गई, बेटा हो गया। वो उम्र में तुमसे काफी बड़ी है और अभी तक कुंवारी बैठी है। अब लड़कों को पसंद करने की उम्र नहीं रही। जो हम पसंद करें, उससे शादी कर ले। कब तक यूं भाई-भाभी के घर में बैठी रहेगी, किसी न किसी से तो शादी करनी ही होगी न। अच्छे लड़के की ख्वाहिश थी, तो पैसेवाले घर में पैदा होना था।Ó  ये वही भाभी है, जो कभी उसे ननद से ज्यादा अपनी सहेली समझती थी, मगर आज दूध का दूध और पानी का पानी हो गया सा लगा।  ४० की दहलीज़ पर खड़ी अविवाहित लड़की को अब घर से ताने मिलने लगे हैं। भाभियां उसे बोझ समझती हैं, दोनों भाई बात-बात पर टोकते रहते हैं। माता-पिता न चाहते हुए भी अपने बेटे-बहू के सामने उसे उल्टा-सीधा कहते हैं, ताकि बेटी को उनसे ज्यादा जली-क
मैं होकर भी, मैं अब नहीं आज की सुबह रोज की तरह नहीं थी। स्कूल के लिए उठाने वाली मां की आवाज ही नहीं आई, नाश्ते की टेबल पर दीदी का शोर सुनाई नहीं दिया, गेट के बाहर पापा की गाड़ी ने हॉर्न नहीं दिया। सबकुछ सुनसान-सा और हर शख्स परेशान सा दिखाई दिया। चारों तरफ अगर कुछ था, तो बस खामोशी। सब मौन थे, बावजूद इसके, परिवार के हर सदस्य की आंखें पूछ रही थीं आखिर मैंने ऐसा क्यूं किया? ऐसा नहीं है कि मैं परेशान नहीं हूं, मगर उनके सवालों का जवाब नहीं दे सकती। कभी नहीं दे सकती। मैं अंदर ही अंदर सोचती हूं कि काश उस पल को फिर से अपनी जि़ंदगी में लौटा सकूं, सबकुछ पहले की तरह कर सकूं, मगर...। मगर अब ये सब संभव नहीं है। कुछ भी संभव नहीं है। मैंने सबकुछ खो दिया पापा का प्यार, मां का दुलार, दीदी की फिक्र, दोस्तों की झड़प और अपना अस्तित्व। आज तक सिर्फ सुना था मृत शरीर को पंचतत्व में विलीन होना, उसे महसूस भी करके देख लिया। कहते हैं न किसी भी चीज की कद्र उसके पास में न रहने से होती है, मुझे भी हो रही है, माता-पिता से दूर जाकर उनकी कमी खल रही है। उन्हें भी मेरी गैरमौजूदगी खाए जा रही है। मैं उनके पास होते हुए भ